मैं योगेश जाधव (उच्च माध्यमिक शिक्षक, लेखक, कवि) अपने वेबपेज DNYAN SAGAR में आपका स्वागत करता हूं|

मानव अधिकार दिन विशेष

  विश्व मानव अधिकार दिन विशेष जानकारी :

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             सामान्य जीवन यापन के लिए प्रत्येक मनुष्य के अपने परिवार, कार्य, सरकार और समाज पर कुछ अधिकार होते हैं, जो आपसी समझ और नियमों द्वारा निर्धारित होते हैं। इसी के अंतर्गत संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर 1948 को सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र को आधिकारिक मान्यता दी गई, जिसमें भारतीय संविधान द्वारा प्रत्येक मनुष्य को कुछ विशेष अधिकार दिए गए हैं। अत: प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है।
                मानव अधिकार से तात्पर्य उन सभी अधिकारों से है जो व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं प्रतिष्ठा से जुड़े हुए हैं। यह सभी अधिकार भारतीय संविधान के भाग-तीन में मूलभूत अधिकारों के नाम से वर्णित किए गए हैं और न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है, जि‍सकी 'भारतीय संविधान' न केवल गारंटी देता है, बल्कि इसका उल्लंघन करने वालों को अदालत सजा भी देती है। वैसे तो भारत में 28 सितंबर, 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में लाया गया था और 12 अक्टूबर, 1993 में 'राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग' का गठन किया गया था, लेकिन संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर 1948 को घोषणा पत्र को मान्यता दिए जाने पर 10 दिसंबर का दिन मानवाधि‍कार दिवस के लिए निश्चित किया गया।
मानवाधिकार को 30 अनुच्छेदों द्वारा सरलता से समझा जा सकता है, और प्रत्येक व्यक्ति को इसकी जानकारी और समझ अवश्य होनी चाहिए -

1. सब लोग गरिमा और अधिकार के मामले में स्वतंत्र और बराबर हैं अर्थात सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता और समानता प्राप्त है। उन्हें बुद्धि और अंतरात्मा की देन प्राप्त है और परस्पर उन्हें भाईचारे के भाव से बर्ताव करना चाहिए।
2. प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के सभी प्रकार के अधिकार और स्वतंत्रता दी गई है। नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक या अन्य विचार, राष्ट्रीयता या समाजिक उत्पत्ति, संपत्ति, जन्म आदि जैसी बातों पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। चाहे कोई देश या प्रदेश स्वतंत्र हो, संरक्षित हो, या स्वशासन रहित हो, या परिमित प्रभुसत्ता वाला हो, उस देश या प्रदेश की राजनैतिक क्षेत्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्थिति के आधार पर वहां के निवासियों के प्रति कोई फर्क नहीं रखा जाएगा।
3. प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, आजादी और सुरक्षा का अधिकार है।
4. गुलामी या दासता से आजादी का अधिकार, अर्थात किसी भी व्यक्ति को गुलामी या दासता की हालत में नहीं रखा जा सकता, गुलामी-प्रथा और व्यापार पूरी तरह से निषिद्ध होगा।
5. यातना, प्रताड़ना या क्रूरता से आजादी का अधिकार अर्थात किसी को भी शारीरिक यातना नहीं दी जा सकती और न किसी के भी प्रति निर्दय, अमानवीय या अपमानजनक किया जा सकता है।
6. कानून के सामने समानता का अधिकार अर्थात हर किसी को, हर जगह कानून की निगाह में व्यक्ति के रूप में स्वीकृति-प्राप्ति का अधिकार है।
7. कानून के सामने सभी को समान संरक्षण का अधिकार अर्थात कानून की निगाह में सभी समान हैं और सभी बिना भेदभाव के समान कानूनी सुरक्षा के अधिकारी हैं।
8. अपने बचाव में इंसाफ के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने का अधिकार, अर्थात सभी को संविधान या कानून द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों पर किसी के द्वारा अतिक्रमण कि‍ए जाने पर समुचित राष्ट्रीय अदालतों की सहायता पाने का अधि‍कार है।
9. मनमाने ढंग से की गई गिरफ्तारी, हिरासत में रखने या निर्वासन से आजादी का अधिकार, अर्थात किसी को भी मनमाने ढंग से गिरफ्तार, नजरबंद, या देश-निष्कासित नहीं किया जा सकता।
10. किसी स्वतंत्र आदालत के जरिए निष्पक्ष सार्वजनिक सुनवाई का अधिकार अर्थात सभी को समान रूप से यह अधिकार है कि उनके अधिकारों और कर्तव्यों के मामले में और फौजदारी के किसी मामले में उनकी सुनवाई अदालत द्वारा न्यायोचित और सार्वजनिक रूप से निरपेक्ष एवं निष्पक्ष हो।
11. जब तक अदालत दोषी करार नहीं दे देती उस वक्त तक निर्दोष होने का अधिकार, अर्थात प्रत्येक व्यक्ति, जिस पर दंडनीय अपरोध का आरोप किया गया हो, तब तक निरपराध माना जाएगा, जब तक उसे ऐसी खुली अदालत में कानून के अनुसार अपराधी न सिद्ध कर दिया जाए, जहां उसे अपनी सफाई की सभी आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हों।
12.घर, परिवार और पत्राचार में निजता का अधिकार, अर्थात किसी व्यक्ति की एकांतता, परिवार, घर, या पत्र व्यवहार के प्रति कोई मनमाना हस्तक्षेप न किया जाए, न ही किसी के सम्मान और ख्याति पर कोई आक्षेप हो। ऐसे हस्तक्षेप या आक्षेपों के विरुद्ध प्रत्येक को कनूनी रक्षा का अधिकार प्राप्त है।
13अपने देश में भ्रमण और किसी दूसरे देश में आने-जाने का अधिकार, अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक देश की सीमाओं के अंदर स्वतंत्रतापूर्वक आने, जाने और बसने एवं अपने या पराए किसी भी देश को छोड़ने और अपने देश वापस आने का अधिकार है।
14.किसी दूसरे देश में राजनितिक शरण मांगने का अधिकार अर्थात कि‍सी व्यक्ति के सताए जाने पर उसे
दूसरे देशों में शरण लेने और रहने का अधिकार है। परंतु इस अधिकार का लाभ ऐसे मामलों में नहीं मिलेगा जो वास्तव में गैर-राजनीतिक अपराधों से संबंधित हैं, या संयुक्त राष्ट्रों के उद्देश्यों और सिद्धांतों के विरुद्ध है।
15. राष्ट्रीयता का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र-विशेष की नागरिकता का अधिकार है। किसी को भी मनमाने ढंग से अपने राष्ट्र की नागरिकता से वंचित नहीं किया जा सकता या नागरिकता का परिवर्तन करने से मना नहीं किया जा सकता।
16. शादी करने और परिवार बढ़ाने का अधिकार और शादी के बाद पुरुष और महिला का समानता का अधिकार अर्थात बालिग स्त्री-पुरुषों को बिना किसी जाति, राष्ट्रीयता या दर्म की रुकावटों के आपस में विवाह करने और परिवार स्थापन करने का अधिकार है। उन्हें विवाह के विषय में वैवाहिक जीवन में, तथा विवाह विच्छेद के बारे में समान अधिकार है।
17. संपत्ति का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को अकेले और दूसरों के साथ मिलकर संपत्ति रखने का अधिकार है। एवं किसी को भी मनमाने ढंग से अपनी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता।
18. विचार, विवेक और किसी भी धर्म को अपनाने की स्वतंत्रता का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को विचार, अंतरात्मा और धर्म की आजादी का अधिकार है।अपना धर्म या विश्वास बदलने और अकेले या दूसरों के साथ मिलकर तथा सार्वजनिक रूप में अथवा निजी तौर पर अपने धर्म या विश्वास को शिक्षा, क्रिया, उपासना, तथा व्यवहार के द्वारा प्रकट करने की स्वतंत्रता है।
19. विचारों की अभिव्यक्ति और जानकारी हासिल करने का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को विचार और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। इसके बिना हस्तक्षेप राय रखना और किसी भी माध्यम के जरिए से तथा सीमाओं की परवाह न करके किसी की सूचना और धारणा का अन्वेषण, ग्रहण तथा प्रदान इसमें सम्मिलित है।
20. संगठन बनाने और सभा करने का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को शांति पूर्ण सभा करने या समिति बनाने की स्वतंत्रता का अधिकार है। किसी को भी किसी संस्था का सदस्य बनने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।
21. सरकार बनाने की गतिविधियों में हिस्सा लेने और सरकार चुनने का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश के शासन में प्रत्यक्ष रूप से या स्वतंत्र रूप से चुने गए प्रतिनिधियों के जरिए हिस्सा लेने, सरकारी नौकरियों को प्राप्त करने का समान अधिकार है।
22. सामाजिक सुरक्षा का अधिकार और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की प्राप्ति का अधिकार अर्थात समाज के एक सदस्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के उस स्वतंत्र विकास तथा गौरव के लिए - जो राष्ट्रीय प्रयत्न या अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा प्रत्येक राज्य के संगठन एवं साधनों के अनुकूल हो - अनिवार्यतः आवश्यक आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की प्राप्ति का हक है।
23. काम करने का अधिकार, समान काम पर समान भुगतान का अधिकार और ट्रेड यूनियन में शामिल होने और बनाने का अधिकार अर्थात इच्छानुसार रोजगार के चुनाव, काम की उचित और सुविधाजनक परिस्थितियों को प्राप्त करने, समान कार्य के लिए बिना किसी भेदभव के समान मजदूरी पाने एवं श्रमजीवी संघ बनाने और उनमें भाग लेने का अधिकार है।
24. काम करने की मुनासिब अवधि और सवैतिनक छुट्टियों का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को विश्राम और अवकाश का अधिकार है। इसके अंतर्गत काम के घंटों की उचित हदबंदी और समय-समय पर मजदूरी सहित छुट्टियां सम्मिलित है।
25. भोजन, आवास, कपड़े, चिकित्सीय देखभाल और सामाजिक सुरक्षा सहित अच्छे जीवन स्तर के साथ स्वयं और परिवार के जीने का अधिकार।
26. शिक्षा का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा का अधिकार है,
जिसमें प्राथमिक शि‍क्षा अनिवार्य एवं निशुल्क होगी। शिक्षा द्वारा राष्ट्रों, जातियों, अथवा धार्मिक समूहों के बीच आपसी सद्भावना, सहिष्णुता और मैत्री का विकास होगा और शांति बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्रों के प्रयत्नों को आगे बढ़ाया जाएगा।
27. सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल होने और बौद्धिक संपदा के संरक्षण का अधिकार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता-पूर्वक समाज के सांस्कृतिक जीवन में हिस्सा लेने, कलाओं का आनंद लेने, तथा वैज्ञानिक उन्नति और उसकी सुविशाओं में भाग लेने का अधिकार है। इसके अलावा प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी ऐसी वैज्ञानिक साहित्यिक या कलात्मक कृति से उत्पन्न नैतिक और आर्थिक हितों की रक्षा का अधिकार है जिसका रचयिता वह स्वयं है।
28. प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की प्राप्ति का अधिकार है जिसमें उस घोषणा में उल्लिखित अधिकारों और स्वतंत्रताओं का पूर्णतः प्राप्त किया जा सके।
29. प्रत्येक व्यक्ति का उसी समाज प्रति कर्तव्य है जिसमें रहकर उसके व्यक्तित्व का स्वतंत्र और पूर्ण विकास संभव हो। अपने अधिकारों और स्वतंत्रताओं का उपयोग करते हुए प्रत्येक व्यक्ति कानून द्वारा निश्चित की गई सीमाओं द्वारा बंध होगा,जिनका एकमात्र उद्देश्य दूसरों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं के लिए आदर और समुचित स्वीकृति की प्राप्ति है। इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं का उपयोग किसी प्रकार से भी संयुक्त राष्ट्रों के सिद्धांतों और उद्देश्यों के विरुद्ध नहीं किया जाएगा।
30. इस घोषणापत्र में शामिल किसी भी बात की ऐसी व्याख्या न हो जिससे यह आभास मिले कि कोई राष्ट्र, व्यक्ति या गुट किसी ऐसी गतिविधि में शामिल हो सकता है जिससे किसी की स्वतंत्रता या अधिकारों का हनन हो।

भारत में मानवाधिकार :

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देशके विशाल आकार और विविधता, विकासशील तथा संप्रभुता संपन्न धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा, तथा एक भूतपूर्व औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है। भारत का संविधान मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी अंतर्भूक्त है। संविधान की धाराओं में बोलने की आजादी के साथ-साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका का विभाजन तथा देश के अन्दर एवं बाहर आने-जाने की भी आजादी दी गई है।यह अक्सर मान लिया जाता है, विशेषकर मानवाधिकार दलों और कार्यकर्ताओं के द्वारा कि दलित अथवा अछूत जाति के सदस्य पीड़ित हुए हैं एवं लगातार पर्याप्त भेदभाव झेलते रहे हैं। हालांकि मानवाधिकार की समस्याएं भारत में मौजूद हैं, फिर भी इस देश को दक्षिण एशिया के दूसरे देशों की तरह आमतौर पर मानवाधिकारों को लेकर चिंता का विषय नहीं माना जाता है। इन विचारों के आधार पर, फ्रीडम हाउस द्वारा फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2006 को दिए गए रिपोर्ट में भारत को राजनीतिक अधिकारों के लिए दर्जा 2, एवं नागरिक अधिकारों के लिए दर्जा 3 दिया गया है, जिससे इसने स्वाधीन की संभतः उच्चतम दर्जा (रेटिंग) अर्जित की है|

भारत में मानवाधिकारों से संबंधित घटनाओं के कालक्रम

  • 1829 - पति की मृत्यु के बाद रुढ़िवादी हिन्दू दाह संस्कार के समय उसकी विधवा के आत्म-दाह की चली आ रही सती-प्रथा को राममोहन राय के ब्रह्मों समाज जैसे हिन्दू सुधारवादी आंदोलनों के वर्षों प्रचार के पश्चाद गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक ने औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया।
  • 1929 - बाल-विवाह निषेध अधिनियम में 14 साल से कम उम्र के नाबालिकों के विवाह पर निषेद्याज्ञा पारित कर दी गई।
  • 1947 - भारत ने ब्रिटिश राज से राजनीतिक आजादी हासिल की।
  • 1950 - भारत के संविधान ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की। संविधान के खण्ड 3 में उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय मौलिक अधिकारों का विधेयक अन्तर्भुक्त है। यह शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से पूर्ववर्ती वंचित वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान भी करता है।
  • 1952 - आपराधिक जनजाति अधिनियम को पूर्ववर्ती "आपराधिक जनजातियों को "अनधिसूचित" के रूप में सरकार द्वारा वर्गीकृत किया गया तथा आभ्यासिक अपराधियों का अधिनियम (1952) पारित हुआ।
  • 1955 - हिन्दुओं से संबंधित परिवार के कानून में सुधार ने हिन्दू महिलाओं को अधिक अधिकार प्रदान किए।
  • 1958 - सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, 1958
  • 1973 - भारत का उच्चतम न्यायालय केशवानन्द भारती के मामले में यह कानून लागू करता है कि संविधान की मौलिक संरचना (कई मौलिक अधिकारों सहित संवैधानिक संशोधन के द्वारा अपरिवर्तनीय है।
  • 1975-77- भारत में आपात काल की स्थिति-अधिकारों के व्यापक उल्लंघन की घटनाएं घटीं.
  • 1978 - मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कानून लागू किया कि आपात-स्थिति में भी अनुच्छेद 21 के तहत जीवन (जीने) के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता.
  • 1978-जम्मू और कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम, 1978
  • [1984 - ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके तत्काल बाद 1984 के सिख विरोधी दंगे
  • 1985-6 - शाहबानो मामला जिसमें उच्चता न्यायालय ने तलाक-शुदा मुस्लिम महिला के अधिकार को मान्यता प्रदान की जिसने मौलानाओं में विरोध की चिंगारी भड़का दी। उच्चतम न्यायालय के फैसले को अमान्य करार करने के लिए राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिमा (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया.
  • 1989 - अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया गया .
  • 1989-वर्तमान- कश्मीरी बगावत ने कश्मीरी पंडितों का नस्ली तौर पर सफाया, हिन्दू मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर देना, हिन्दुओं और सिखों की हत्या तथा विदेशी पर्यटकों और सरकारी कार्यकर्ताओं का अपहरण देखा.
  • 1992 - संविधानिक संशोधन ने स्थानीय स्व-शासन (पंचायती राज) की स्थापना तीसरे तले (दर्जे) के शासन के ग्रामीण स्तर पर की गई जिसमें महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीट आरक्षित की गई। साथ ही साथ अनुसूचित जातियों के लिए प्रावधान किए गए।
  • 1992 - हिन्दू-जनसमूह द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दिया गया, परिणामस्वरूप देश भर में दंगे हुए.
  • 1993 - मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई।
  • 2001 - उच्चतम न्यायालय ने भोजन का अधिकार लागू करने के लिए व्यापक आदेश जारी किए। 
  • 2002 - गुजरात में हिंसा, मुख्य रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यक को लक्ष्य कर, कई लोगों की जाने गईं।
  • 2005 - एक सशक्त सूचना का अधिकार अधिनियम पारित हुआ ताकि सार्वजनिक अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र में संघटित सूचना तक नागरिक की पहुंच हो सके। 
  • 2005 - राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) रोजगार की सार्वभौमिक गारंटी प्रदान करता है।
  • 2006 - उच्चतम न्यायालय भारतीय पुलिस के अपयार्प्त मानवाधिकारों के प्रतिक्रिया स्वरूप पुलिस सुधार के आदेश जारी किए। 
  • 2009 - दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 की घोषणा की जिसने अनिर्दिष्ट "अप्राकृतिक" यौनाचरणों के सिलसिले को ही गैरक़ानूनी करार कर दिया, लेकिन जब यह व्यक्तिगत तौर पर दो लोगों के बीच सहमति के साथ समलैंगिक यौनाचरण के मामले में लागू किया गया तो अंसवैद्यानिक हो गया, तथा भारत में इसने समलैंगिक संपर्क को प्रभावी तरीके से अलग-अलग भेद-भाव कर देखना शुरू किया। भारत में समलैंगिकता भी देखें:

हिरासत में मौतें

                पुलिस के द्वारा हिरासत में यातना और दुराचरण के खिलाफ राज्य की निषेधाज्ञाओं के बावजूद, पुलिस हिरासत में यातना व्यापक रूप से फैली हुई है, जो हिरासत में मौतों के पीछे एक मुख्य कारण है। पुलिस अक्सर निर्दोष लोगों को घोर यातना देती रहती है जबतक कि प्रभावशाली और अमीर अपराधियों को बचाने के लिए उससे अपराध "कबूल" न करवा लिया जाय. जी.पी. जोशी, राष्ट्रमंडल मानवाधिकारों की पहल की भारतीय शाखा के कार्यक्रम समन्वयक ने नई दिल्ली में टिप्पणी करते हुए कहा कि पुलिस हिंसा से जुड़ा मुख्य मुद्दा है पुलिस की जवाबदेही का अभी भी अभाव.वर्ष 2006 में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ के एक मामले में अपने एक फैसले में, केन्द्रीय और राज्य सरकारों को पुलिस विभाग में सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ करने के सात निर्देश दिए। निर्देशों के ये सेट दोहरे थे, पुलिस कर्मियों को कार्यकाल प्रदान करना तथा उनकी नियुक्ति/स्थानांतरण की प्रक्रिया को सरल और सुसंगत बनाना तथा पुलिस की जवाबदेही में इज़ाफा करना। 

भारतीय प्रशासित कश्मीर

          कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों और संयुक्त राष्ट्र ने भारतीय-प्रशासित कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन की रिपोर्ट दी है। हाल ही में एक प्रेस विज्ञप्ति में ओएचसीएचआर (OHCHR) के एक प्रवक्ता ने कहा, "मानवाधिकारों के उच्चायुक्त का कार्यालय भारतीय-प्रशासित कश्मीर में हाल-फिलहाल हुए हिंसक विरोधों के बारे अधिक चिंतित है सूचनानुसार जिसके कारण नागरिक तो मारे गए ही साथ ही साथ सभा आयोजित करने (एक साथ समूह में जमा होने) अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया..वर्ष 1996 के मानवाधिकारों की चौकसी के रिपोर्ट ने भारतीय सेनावाहिनी एवं भारतीय सरकार द्वारा समर्थित अर्द्धसैनिक बलों की कश्मीर में गंभीर और व्यापक मानवाधिकारों के उल्लंघन करने के आरोप लगाए हैं।[16] ऐसा ही एक कथित नरसंहार सोपोर शहर में 6 जनवरी 1993 को घटित हुआ। टाइम पत्रिका ने इस घटना का विवरण इस प्रकार दिया, "केवल एक सैनिक की ह्त्या के प्रतिशोध में, अर्द्धसैनिक बलों ने पूरे सोपोर बाज़ार को रौंद डाला और आसपास खड़े दर्शकों को गोली मार दी. भारत सरकार ने इस घटना की निन्दा करते हुए इसे "दुर्भाग्यपूर्ण" कहा तथा दावा किया कि अस्त्र-शस्त्र के एक जखीरे में बारूद के गोले से आग लग गई जिससे अधिकांश लोग मौत के शिकार हुए.[17] इसके अतिरिक्त कई मानवाधिकार संगठनों ने पुलिस अथवा सेना द्वारा कश्मीर में लोगों के गायब कर दिए जाने के दावे भी पेश किए हैं।कई मानवाधिकार संगठनों, जैसे कि एमनेस्टी इंटरनैशनल एवं ह्युमन राइट्स वॉच (HRW) ने भारतीयों के द्वारा कश्मीर में किए जाने वाले मानवाधिकारों के हनन की निंदा की है जैसा कि "अतिरिक्त-न्यायायिक मृत्युदंड", "अचानक गायब हो जाना", एवं यातना;"सशस्त्र बलों के विशेष अधिकार अधिनियम", जो मानवाधिकारों के हनन और हिंसा के चक्र में ईंधन जुटाने में दण्ड से छुटकारा दिलाता है। सशस्त्र बलों के विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) सेनावाहिनी को गिरफ्तार करने, गोली मारकर जान से मार देने का अधिकार एवं जवाबी कार्रवाई के ऑपरेशनों में संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेना या उसे नष्ट कर देने का व्यापक अधिकार प्रदान करता है। भारतीय अधिकारियों का दावा है कि सैनिकों को ऐसी क्षमता की ही आवश्यकता है क्योंकि जब कभी भी हथियारबंद लड़ाकुओं से राष्ट्रीय सुरक्षा को संगीन खतरा पैदा हो जाता है तो सेना को ही मुकाबला करने के लिए तैनात किया जाता है। उनका कहना है कि, ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए असाधारण उपायों की जरुरत पड़ती है।" मानवाधिकार संगठनों ने भी भारत सरकार से जन सुरक्षा अधिनियम को निरसित कर देने की सिफारिश की है, चूंकि "एक बंदी को प्रशासनिक नजरबंदी (कारावास) के अदालत के आदेश के बिना अधिकतम दो सालों के लिए बंदी बनाए रखा जा सकता है". संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (युनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्युज़िज़) के एक रिपोर्ट के मुताबिक यह तय किया गया कि भारतीय प्रशासित कश्मीर "आंशिक रूप से आजाद" है, (जबकि पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के बारे में निर्धारित किया गया कि "आजाद नहीं" है।

प्रेस की आजादी

           सीमा के बिना संवाददाताओं(रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स) के अनुमान के अनुसार, दुनिया भर में प्रेस की आजादी के सूचकांक में भारत का स्थान 105वां है (भारत के लिए प्रेस की आजादी का सूचकांक 2009 में 29.33 था). भारतीय संविधान में "प्रेस" शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन "भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार" का प्रावधान किया गया है (अनुच्छेद 19(1) a). हालांकि उप-अनुच्छेद (2), के अंतर्गत यह अधिकार प्रतिबंध के अधीन है, जिसके द्वारा भारत की प्रभुसत्ता एवं अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध जनता में श्रृंखला, शालीनता का संरक्षण, नैतिकता का संरक्षण, किसी अपराध के मामले में अदालत की अवमानना, मानहानि, अथवा किसी अपराध के लिए उकसाना आदि कारणों से इस अधिकार को प्रतिबंधित किया गया है". जैसे कि सरकारी गोपनीयता अधिनियम एवं आतंकवाद निरोधक अधिनियम के कानून लाए गए हैं।  प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए पोटा (पीओटीए) का इस्तेमाल किया गया है। पोटा (पीओटीए) का इस्तेमाल किया गया है। पोटा (पीओटीए) के अंतर्गत पुलिस को आतंकवाद से संबंधित आरोप लाने से पूर्व किसी व्यक्ति को छः महीने तक के लिए हिरासत में बंदी बनाकर रखा जा सकता था। वर्ष 2004 में पोटा को निरस्त कर दिया गया, लेकिन युएपीए (UAPA) के संशोधन के जरिए पुनःप्रतिस्थापित कर दिया गया।सरकारी गोपनीयता अधिनियम 1923 कारगर रूप से बरकरार रहा.

           स्वाधीनता की पहली आधी सदी के लिए, राज्य के द्वारा मीडिया पर नियंत्रण प्रेस की आजादी पर एक बहुत बड़ी बाधा थी। इंदिरा गांधी ने वर्ष 1975 में एक लोकप्रिय घोषणा की कि "ऑल इण्डिया रेडियो" एक सरकारी अंग (संस्थान) है और यह सरकारी अंग के रूप में बरकरार रहेगा. 1990 में आरम्भ हुए उदारीकरण में, मीडिया पर निजी नियंत्रण फलने-फूलने के साथ-साथ स्वतंत्रता बढ़ गई और सरकार की अधिक से अधिक तहकीकात करने की गुंजाइश हो गई तहलका और एनडीटीवीजैसे संगठन विशेष रूप से प्रभावशाली रहे हैं, जैसे कि, हरियाणा के शक्तिशाली मंत्री विनोद शर्मा को इस्तीफा दिलाने के बारे में. इसके अलावा, हाल के वर्षों में प्रसार भारती के अधिनियम जैसे पारित कानूनों ने सरकार द्वारा प्रेस पर नियंत्रण को कम करने में उल्लेखनीय योगदान किया है।

एल जी बी टी (LGBT) अधिकार

             जब तक दिल्ली हाई कोर्ट ने 2 जून 2009 को सम-सहमत वयस्कों के बीच सहमति-जन्य निजी यौनकर्मों को गैरआपराधिक नहीं मान लिया[29] तबतक 150 वर्ष पुरानी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की अस्पष्ट धारा 377, औपनिवेशिक ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा पारित कानून की व्याख्या के अनुसार समलैंगिकता को अपराधी माना जाता था। बहरहाल, यह कानून यदा-कदा ही लागू किया जाता रहा समलैंगिकता को गैरापराधिक करार करार करने के अपने आदेश में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि मौजूदा कानून भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के साथ प्रतिद्वन्द्व पैदा करती है और इस तरह के अपराधीकरण संविधान की धारा 21, 14 और 15 का उल्लंघन करते हैं| दिसंबर 11 , 2013 को समलैंगिकता को एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आपराध माना गया। 

मानव तस्करी

           मानव तस्करी भारत में $ 8 मिलियन अमेरिकी डॉलर का एक अवैध व्यापार है। हर साल लगभग 10,000 नेपाली महिलाएं वाणिज्यिक यौन शोषण के लिए भारत लायी जाती हैं। हर साल 20,000-25,000 महिलाओं और बच्चों की बांग्लादेश से अवैध तस्करी हो रही है।बाबूभाई खिमाभाई कटारा एक सांसद थे जब एक बच्चे की कनाडा में तस्करी के लिए वे गिरफ्तार कर लिए गए।

धार्मिक हिंसा

         भारत में (अधिकतर हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक गुटों के बीच) सांप्रदायिक संघर्ष ब्रिटिश शासन से आज़ादी के आसपास के समय से ही प्रचलित हैं। भारत में सांप्रदायिक हिंसा की सबसे पुरानी घटनाओं में केरल मोप्लाह (Moplah) विद्रोह था, जब कट्टरपंथी इस्लामी जंगियों ने हिंदुओं की हत्या कर दी। भारत विभाजन के दौरान हिंदुओं/ सिखों और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगों में बड़े पैमाने पर हुई हिंसा में लोग बड़ी संख्या में मारे गए थे।

              1984 के सिख विरोधी दंगों में चार दिन की अवधि के दौरान भारत की नरमदलवादी धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस पार्टी के सदस्यों द्वारा सिखों की हत्या होती रही, कुछ लोगों का अनुमान है कि 2,000 से अधिक मारे गए थे। अन्य घटनाओं में 1992 के मुंबई दंगे तथा 2002 के गुजरात की हिंसा की घटनाएं शामिल हैं- उत्तरार्द्ध वाली घटना में, इस्लामी आतंकवादियो ने हिंदू यात्रियों से भरी गोधरा में खड़ी ट्रेन को एक हमले में जला डाला, जिसमे 58 हिंदू मारे गए थे, इस घटना के परिणामस्वरूप 790 मुसलमान और 254 हिंदू मारे गए थे (जिसका कोई उल्लेख नहीं है).. कई कस्बों और गांवों को छिटपुट छोटी-मोटी घटनाएं त्रस्त करती रही हैं; जिसमे से एक उदहारण स्वरुप उत्तर प्रदेश के मऊ में हिंदू-मुस्लिम दंगे के दौरान पांच लोगों की हत्या थी, जो एक प्रस्तावित हिंदू त्योहार के समारोह के उपलक्ष में भड़का दिया गया था। ऐसी ही एक अन्य घटना में को सांप्रदायिक दंगों में 2002 मराद नरसंहार शामिल है, जिसे उग्रवादी इस्लामी गुट राष्ट्रीय विकास मोर्चा द्वारा अंजाम दिया गया था, साथ हीसाथ तमिलनाडु में इस्लामवादी तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कज़घम द्वारा निष्पादित हिन्दुओं के खिलाफ सांप्रदायिक दंगे हैं।

जाति से संबंधित मुद्दे

           ह्यूमन राइट्स वॉच के एक रिपोर्ट के अनुसार, दलितों और स्वदेशी लोगों (जो अनुसूचित जनजातियों या आदिवासियों के रूप में जाने जाते हैं) वे लगातार भेदभाव, बहिष्कार, एवं सांप्रदायिक हिंसा के कृत्यों का सामना कर रहे हैं। भारतीय सरकार द्वारा अपनाए गए क़ानून और नीतियां सुरक्षा के मजबूत आधार प्रदान करती हैं, लेकिन स्थानीय अधिकारियों द्वारा ईमानदारी से कार्यान्वित नहीं हो रही है।"

           एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है, "यह भारतीय सरकार की जिम्मेदारी है कि जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ कानूनी प्रावधानों को पूरी तरह से अधिनियमित और लागू करे.कई खानाबदोश जनजातियों के साथ भारत की अनधिसूचित (डिनोटिफाइड) जनजातियों की जनसंख्या जो सामूहिक रूप से 60 मिलियन है, लगातार आर्थिक कठिनाइयों और सामाजिक कलंक का सामना कर रहे हैं, इस तथ्य के बावजूद कि आपराधिक जनजातियों के अधिनियम 1871 को सरकार द्वारा 1952 में निरसित कर दिया गया था और आभ्यासिक अपराधियों के अधिनियम (एचओए) (1952) द्वारा इतने प्रभावी रूप से प्रतिस्थापित कर दिया गया कि, तथाकथित "अपराधिक जनजातियों" की पुरानी सूची से एक नई सूची बनाई गई। यहाँ तक कि आज भी ये जनजातियां असामाजिक गतिविधि निवारण अधिनियम'(PASA) के परिणामों को झेलती हैं, जो केवल उनके अस्तित्व में बने रहने के लिए उनके दैनन्दिन संघर्ष में इजाफा ही करते हैं क्योंकि उनमें से ज्यादातर लोग गरीबी रेखा के नीचे ही रहते हैं। नस्ली भेदभाव उन्मूलन (CERD) पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और संयुक्त राष्ट्र की भेदभाव विरोधी निकाय समिति ने सरकार से इस क़ानून को अच्छी तरह से निरसित कर देने को कहा है, क्योंकि ये पहले की आपराधिक जनजातियां बड़े पैमाने पर उत्पीड़न और सामाजिक बहिष्कार सहती रही हैं और कइयों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग का दर्जा देने से इनकार कर दिया गया है ताकि उनके आरक्षण के अधिकार को नकार दिया जाय जो उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाता.

अन्य हिंसा

जैसे कि बिहारी-विरोधी मनोभाव के संघर्षों ने कभी-कभी हिंसा का रूप धारण कर लिया है।

             अपराध जांच के लिए आक्रामक तरीके जैसेकि 'नार्कोअनालिसिस' (नियंत्रित संज्ञाहरण) अर्थात अवचेतन में विश्लेषण की अब सामान्यतः भारतीय अदालतों ने अनुमति दी है। हालांकि भारतीय संविधान के अनुसार "किसी को भी खुद उसी के खिलाफ एक गवाह नहीं बनाया जा सकता है", अदालतों ने हाल ही में घोषणा की है कि यहाँ तक कि इस प्रयोग के संचालन के लिए अदालत से अनुमति आवश्यक नहीं है। अवचेतानावस्था में विश्लेषण (Narcoanalysis) का अब व्यापक रूप से प्रयोग प्रतिस्थापित/प्रवंचना के लिए किया जाता है अपराध जांच के वैज्ञानिक तरीकों के संचालन के लिए कौशल और बुनियादी सुविधाओं की कमी है। अवचेतानावस्था में विश्लेषण (Narcoanalysis) पर भी चिकित्सा की नैतिकता के खिलाफ आरोप लगाया गया है।

             यह पाया गया है कि देश के आधे से अधिक कैदी पर्याप्त सबूत के बिना ही हिरासत में हैं। अन्य लोकतांत्रिक देशों के विपरीत, आम तौर पर भारत में आरोपी की गिरफ्तारी के साथ ही जांच की शुरूआत होती है। चूंकि न्यायिक प्रणाली में कर्मचारियों की कमी और सुस्ती है, अतः कई वर्षों से जेल में सड़ रहे निर्दोष नागरिकों का होना कोइ असामान्य बात नहीं है। उदाहरण के लिए, सितम्बर 2009 में मुम्बई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार से एक 40-वर्षीय व्यक्ति को मुआवजे के रूप में 1 लाख रुपये का भुगतान करने के लिए कहा क्योंकि जिस अपराध के लिए वह 10 साल से जेल में सजा काट रहा था दरअसल उसने वह अपराध किया ही नहीं था।

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